Shikshapatri - Hindi
Shikshapatri - Hindi
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शिक्षापत्री लेखक षडैश्वर्य संपन्न भगवान श्री स्वामिनारायणने अनेक जीवों के कल्याणार्थ सं. १८३७, रामनवमी और सोमवार के दिन अयोध्या के समीप छपैया गाँव में, सरयूपारीण विप्रकुल में अवतार धारण किया। उनके पिता धर्मदेव, माता भक्तिदेवी थे। मात-पिता के स्वधामगमन के बाद११ वर्ष की छोटी अवस्था में उन्होंने गृह त्याग किया और सात वर्ष तक तप, वनविचरण एवं पूरे भारतवर्ष का भ्रमण करते हुए सं. १८५६ में सौराष्ट्र में पदार्पण किया। वहाँ उद्धवावतार श्री रामानंद स्वामी को मिले। रामानंदस्वामी उस तेजस्वी युवा ब्रह्मचारी को धर्मधुरा सौंपकर अंतर्धान हुए ।
उस समय देश में राजा एवं प्रजा भोगविलास, अनीति, अनाचार, व्यसन एवं झूठे वहेमों के जाल में फँसे थे। धर्म के नाम से ढोंग एवं भक्ति की आड में भ्रष्टाचार बढते जा रहे थे। भगवान स्वामिनारायण ने ठौर-ठौर घूमकर जनता का ध्यान कर्तव्य की ओर आकर्षित करके समाज का उन दूषणों से उद्धार किया। लाखों नर-नारी हिन्दु, मुस्लिम, हरिजन उनके आश्रित बने। भगवान स्वामिनारायण ने क्रूर एवं पापी मनुष्यों का भी हृदय परिवर्तन करके उनको आदर्श भक्त बनाये। तीस वर्ष के अल्प समय में उन्होंने सदियों का कार्य किया। महा गुजरात की प्रजामें अभूतपूर्व एवं अद्भूत परिवर्तन ला दिया। प्रासंगिक समारोहों, अहिंसामय यज्ञों, देवमंदिरो के निर्माण, उत्कृष्ट साहित्य के सर्जन द्वारा उन्होंने मानव समाज का नव निर्माण करके समाज में स्थिरता एवं शांति की स्थापना की। इस प्रकार सनातन हिन्दु धर्म का पुनरुद्धार करके वे सं.१८८६ की जयेष्ठ शुक्ला दशमी के दिन अंतर्धान हुए।
स्वधामगमन से पूर्व उन्होंने मनुष्यों पर करुणा से मानवजीवन की अल्पता को ख्याल में रखकर समस्त शास्त्रों के सारभूत, व्यवहार एवं मोक्ष की मंगल मार्गदर्शिनी, सर्वजन श्रेयसकारी शिक्षापत्री का आविष्कार किया।
यह शिक्षापत्री देखने में तो अत्यन्त छोटी, केवल २१२ श्लोक की ही है; परंतु इसमें मनुष्य के मनुष्यत्व को पूर्ण करनेवाली एवं मोक्षमूलक ऐहिक तथा पारलौकिक सभी बातें आश्चर्यकारक ढंग से आ गयी हैं। शिक्षापत्री न केवल स्वामिनारायण संप्रदाय के आश्रितों की आचार संहिता है, बल्कि इसके सिद्धांत सर्वजीवहितावह होने से सार्वजनीन एवं सार्वभौमिक हैं।


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